महाभारत में 4 जनपदों त्रिगर्त, औदम्बर, कुलुटा और कुलिन्द का विवरण मिलता है।
1.औदम्बर—-
यह हिमाचलीय क्षेत्रों का एक महत्वपूर्ण जनपद था। महाभारत के अनुसार औदुम्बर विश्वामित्र के वंशज थे जो कौशिक गोत्र से सम्बन्धित है। औदुम्बर राज्य के सिक्के काँगड़ा, पठानकोट, ज्वालामुखी, गुरदासपुर और होशियारपुर के क्षेत्रों में मिले जो उनके निवास स्थान की पुष्टि करते हैं। ये लोग शिव की पूजा करते थे। पाणिनि के ‘गणपथ’ में भी औदम्बर जाति का विवरण मिलता है। अदुम्बर वृक्ष की बहुलता के कारण यह जनपद औदुम्बर कहलाया।महाभारत, मार्कण्डेय पुराण और बृहन्तसंहिता में भी औदुम्बरों का नाम पाया जाता है। औदुम्बरों के तांबे और चांदी के सिक्के थे इन सिक्कों खुदे अक्षरों में ब्रह्मी और खरोष्ठी दोनों लिपियों का प्रसँग हुआ है। इन सिक्कों पर त्रिशूल और बैल आदि की मूर्तियों के पाये
जाने से प्रतीत होता है कि ये लोग शैव भक्त थे। उनके सिक्कों में एक अतिरिक्त शब्द है “महादेव जनजाति के राजा के साथ।” सिक्के में बैल (नंदी) की आकृति भी दिखाई देती है।
चंद्रगोमिन (5 वीं शताब्दी AD) नामक एक बौद्ध विद्वान अपनी पुस्तक “वृत्ति में ‘शाल्व ‘के एक भाग के रूप में औदुम्बरों को संदर्भित करता है।शाल्व का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में भी किया गया है, यह इस तथ्य को संदर्भित करता है, कि शाल्व की कई घटक थे और औदुम्बर भी उनमें से एक थे।
औदुम्बार लाभप्रद रूप से वाणिज्य के महान मार्ग पर स्थित थे जो तक्षशिला से गंगा की घाटी के लिए चलते थे, और यह मगध से कश्मीर तक का मार्ग था। पठानकोट में जनजाति के सिक्कों की संख्या पाई गई है जिससे पता चलता है कि पठानकोट वाणिज्यिक मार्ग का जंक्शन था। भेड़ पालन लोगों के व्यवसाय में से एक था। स्थानीय उद्योगों ने उनके धन के एक प्रमुख स्रोत का योगदान दिया। उनकी आर्थिक समृद्धि भी ‘विनय पिटक’ जैसे बौद्ध ग्रंथों द्वारा प्रमाणित की जाती है।
2. त्रिगर्त–
त्रिगर्त हिमाचल प्रदेश की सबसे प्राचीनतम रियासत है। त्रिगर्त जनपद की स्थापना 8वीं BC से 5वीं BC के बीच भूमि चन्द्र द्वारा की गई । त्रिगर्त जिसे हाल तक त्रिगाढ़ के नाम से के नाम पुकारा जाता था और जो त्रिगर्त का ही अपभ्रंश शब्द है, वर्तमान कांगड़ा के क्षेत्रों का नाम था। यद्यपि उस समय इसकी सीमाएं मैदानों तक फैली थी। इसकी राजधानी जालन्धर थी इसलिए इसे जलंधरायण भी कहते थे। कई प्रसंगों में जालंधर और त्रिगर्त को एक दूसरे के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि गया और मैदानों में इसे जांलधर और पहाडों में त्रिगर्त कहते थे। यह क्षेत्र सतलुज और रावी नदियों के मध्य में फैला था। इसका मुख्य स्थान उस समय शायद मुल्तान था और यह एक शक्तिशाली जनपद था। इस वंश के 234वें राजा सुशर्म चन्द्र ने महाभारत यद्ध में कौरवों की सहायता की थी। सुशर्मचन्द्र ने पाण्डवों को अज्ञातवास में शरण देने वाले मत्स्य राजा ‘विराट’ पर आक्रमण किया था जो कि उसका पड़ोसी राज्य था।
यह भी संभव है कि कौरवों के महाभारत के युद्ध में हार जाने के बाद सुशर्मचन्द्र मैदानों के क्षेत्र से निकल गए और वह पहाड़ों में ही आ गया। उसने कांगड़ा-दुर्ग बनाया और नागरकोट में राजधानी की नींव रखी। पाणिनि ने त्रिगर्त को ‘त्रिगर्त शष्टस आयुद्ध जीवी‘ संघ कहा है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि त्रिगर्त उस समय छः कबीलों का संघ था। कौशिक के अनुसार इस संघ के छः सदस्य कौदपर्थ, दण्डकी, करौष्टकी, जनमणि, ब्रह्मगुप्त और जनकी थे।
त्रिगर्त के ईसा पूर्व दूसरी सदी में जनपद होने के प्रमाण उस समय के सिक्कों में पाये जाते हैं। ये सिक्के चौकोर शक्ल के हैं और उनके एक ओर ब्राह्मी लिपि के अक्षर हैं और दूसरी ओर खारोष्ठी के। त्रिगर्त से अभिप्राय है तीन नदियों द्वारा सिंचित क्षेत्र, ये तीन नदियां हैं रावी, व्यास और सतलुज।
3. कुल्लूत-
कुल्लूत जो वर्तमान कुल्लू है, का नाम पुराणों, महाभारत ओर रामायण में भी आता है। कुल्लू की विद्यमानता अति प्राचीन है। पौराणिक राजा पृथु, जिसके नाम पर धरती का नाम पृथ्वी पड़ा माना जाता है, को भी मूलतः कुल्लू का ही राजा माना जाता है। इसकी प्राचीन राजधानी ‘नग्गर’ थी जिसका विवरण पाणिनि की ‘कत्रेयादी गंगा’ में मिलता है। कुल्लूत जनपद की विद्यमानता भी प्रथम शताब्दी ई. के लगभग पाये जाने वाले सिक्कों से पाई जाती है। कुल्लू घाटी में राजा बिर्यात के नाम से 100 ई. का सबसे पुराना सिक्का मिला है। इस पर ‘प्राकृत’ और ‘खरोष्ठी’ भाषा में लिखा गया है। सिक्कों पर “विर्यसस्य राज्ञः कुल्लूतस्य” संस्कृत शब्द पाये जाने से ये प्रथम शताब्दी ई. के आस-पास के मालूम होते हैं। कुल्लूत रियासत की स्थापना ‘प्रयाग’ (इलाहाबाद) से आये ‘विहंगमणि पाल’ ने की थी।
4. कुलिंद-
महाभारत के अनुसार कुलिंद पर अर्जुन ने विजय प्राप्त की थी। कुलिंद रियासत व्यास, सतलुज और यमुना के बीच की भूमि थी जिसमें सिरमौर, शिमला, अम्बाला और सहारनपुर के क्षेत्र शामिल थे। कुलिंदों का वर्णन विष्णु, वायु और मार्कण्डेय पुराणों तथा महाभारत में आता है। विष्णु पुराण में कुलिंदों को “कुलिन्दोपाल्यकस” यानि पहाड़ों के चरणों में रहने वाला कहा गया है। विद्वानों ने कुलिंदो की राजधानी कुलिंद नगरी वर्तमान राजबन के आस-पास पाटा साहिब के नजदीक मानी है। इसी के समीप यमुना नदी बहती है जिसका पौराणिक नाम कालिंदी भी है। कालिंद पर्वत से बहने के कारण इसका नाम कालिंदी पड़ा और इसके साथ-साथ पड़ने वाले क्षेत्र को शायद कुलिंद कहा गया। कालिंद शब्द का अर्थ ‘बहेड़ा’ भी है । सोलन, सिरमौर एवं उत्तर प्रदेश के देहरादून आदि के क्षेत्र कुलिंदों के अधीन थे। बाद में यह नाम कुनिंद में और कुनिंद से कुनैत में बदल गया और अभी तक भी इस क्षेत्र के निवासियों को कुनैत कह कर पुकारा जाता है। यहां के ही नहीं बल्कि शिमला, नालागढ़, बिलासपुर और मण्डी तथा कुल्लू कुनैत नाम से पुकारे जाते हैं। खशों के साथ इनको भी हिमाचल के आदि निवासियों में से माना जाता है। वर्तमान समय के कुनैत” या “कनैत” का सम्बन्ध कुलिंद से माना जाता है। कुलिंद या कुलिंदों का शासन भी प्रजातांत्रिक ढंग का था जैसा कि ऊपर लिखित संस्कृत शास्त्रोक्ति से प्रकट है । इनके तांबे और चांदी के सिक्के चलते थे। तांबो के सिक्कों पर केवल ब्राह्मी लिपि के अक्षर खुदे हैं। तांबों के सिक्कों पर एक ओर प्रकृत के अक्षर हैं और दूसरी ओर “खरोष्ठी” लिपि के। इससे प्रमाणित होता है कि कुनिंद अपने राज्य में तांबे के सिक्कों का प्रयोग करते थे और अन्य राज्यों से उनका व्यापार चांदी के सिक्कों से होता था। कुलिंद के चांदी के सिक्के पर राजा ‘अमोबभूति’ का नाम खुदा हुआ मिला है।