1. ब्रिटिश और गोरखे-
गोरखों ने कहलूर के राजा महानचंद के साथ मिलकर 1806 में संसारचंद को हराया। अमर सिंह थापा ने 1809 ई. में हिण्डूर के राजा राम सरन सिंह पर दबाव डालना शुरू कर दिया परन्तु अंग्रेजी सेनाओं के लुधियाना आने से ‘पलासी’ उसके कब्जे में आने से बच गया। अमर सिंह थापा ने 1809 ई. में भागल रियासत के राणा जगत सिंह को भगाकर अर्की पर कब्जा कर लिया। अमर सिंह थापा ने अपने बेटे रंजौर सिंह को सिरमौर पर आक्रमण करने के लिए भेजा। राजा कर्मप्रकाश (सिरमौर) ने अम्बाला के ‘भूरिया’ भागकर जान बचाई। नाहन और जातक किले पर गोरखों का कब्जा हो गया। 1810 ई. में गोरखों ने हिण्डूर, जुब्बल और पण्ड्रा क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। बलसन रियासत का नगाना किले पर भी कब्जा कर लिया। अमर सिंह थापा ने बुशहर रियासत पर 1811 ई. में आक्रमण किया। अमर सिंह थापा 1813 ई. तक रामपुर में रहा उसके बाद अर्की वापस लौट आया।
2.गोरखा और ब्रिटिश हितों का टकराव-
1813 ई. में अमर सिंह थापा ने सरहिंद के 6 गाँवों पर कब्जा करना चाहा जिसमें से 2 गाँव डेविड ओक्टरलोनी के ब्रिटिश-सिखों के संरक्षित थे। इससे दोनों में विवाद बढ़ा। दूसरा ब्रिटिश के व्यापारिक हितों के आगे गोरखे आने लगे थे क्योंकि तिब्बत से उनका महत्त्वपूर्ण व्यापार होता था। गोरखों ने तिब्बत जाने वाले लगभग सभी दरों एवं मार्गों पर कब्जा कर लिया था। इसलिए गोरखा-ब्रिटिश युद्ध अनिवार्य लगने लगा था। अंग्रेजों ने 1 नवम्बर, 1814 को गोरखों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
3. गोरखा-ब्रिटिश युद्ध-
मेजर जनरल डेविड ओक्टरलोनी और मेजर जनरल रोलो गिलेस्पी के नेतृत्व में अंग्रेजों ने गोरखों के विरुद्ध युद्ध लड़ा। मेजर गिलेस्पी ने 4400 सैनिकों के साथ गोरखा सेना को कलिंग के किले जिसे नालापानी भी कहा जाता था, में हराया जिसका नेतृत्व बलभद्र थापा कर रहे थे।
सिरमौर के नाहन में अमर सिंह थापा के पुत्र रंजौर सिंह गोरखों का नेतृत्व कर रहा था। 19 दिसम्बर 1814 को अंग्रेजों ने जातक किले पर आक्रमण किया। रंजौर सिंह ने नाहन से जातक किले में जाकर अंग्रेजी सेना को भारी क्षति पहुँचाई। कहलूर रियासत शुरू में गोरखों के साथ था जिससे गोरखों ने ब्रिटिश सेनाओं को कई स्थानों पर भारी क्षति पहुँचाई। अंग्रेजों ने बिलासपुर के सरदार के साथ मिलकर कन्दरी से नाहन तक सड़क बनवाई।
अंग्रेजों ने 16 जनवरी, 1815 को डेविड आक्टरलोनी के नेतृत्व में अर्की पर आक्रमण किया। अमर सिंह थापा मलौण किले में चला गया जिससे तारागढ़, रामगढ़ के किले पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया।
4.गोरखा पराजय-
इसी समय अंग्रेज उत्तरी दिशा में जुब्बल रियासत की तरफ मुड़े। जुब्बल रियासत में अंग्रेजों ने डांगी वजीर और प्रिमू के साथ मिलकर चूड़धार चोटी को पार करते हुए 12 मार्च, 1815 को चौपाल में 100 गोरखों को हथियार डालने पर विवश किया। चौपाल जीतने के बाद ‘राबिनगढ़ किले’ जिस पर रंजौर सिंह थापा का कब्जा था, अंग्रेजों ने आक्रमण किया। टीकम दास, बदरी और डांगी वजीर के साथ बुशहर रियासत की सेनाओं ने अंग्रेजों के साथ मिलकर गोरखों को ‘राबिनगढ़ किले’ से भगा दिया। रामपुर-कोटगढ़ में गोरखा सेनाओं ने हाटू श्रेणी पर कीर्ति राणा के नेतृत्व में कब्जा किया था।
1815 के शुरू में बुशहर और कुल्लू की संयुक्त सेनाओं ने उसे नवागड़ में घेर लिया। रामपुर-कोटगढ़ में बुशहर और कुल्लू की संयुक्त सेनाओं ने ‘सारन-का-टिब्बा’ के पास गोरखों को हथियार डालने पर मजबूर किया। हण्डूर के राजा रामशरण और कहलूर के राजा के साथ मिलकर अंग्रेजों ने मोर्चा बनाया। अमरसिंह थापा को रामगढ़ से भागकर मलोण किले में शरण लेनी पड़ी। भक्ति थापा की मृत्यु (गोरखों का बहादुर सरदार) मलोण किले में होने से गोरखों को भारी क्षति हुई। कुमायूँ की हार और उसके सैनिकों की युद्ध करने की अनिष्ठा ने अमर सिंह यापा को हथियार डालने पर मजबूर किया।
5.सुगौली की संधि-
अमर सिंह थापा ने अपने और अपने पुत्र रंजौर सिंह जो कि जातक दुर्ग की रक्षा कर रहा था के सम्मानजनक और सुरक्षित वापसी के लिए अंग्रेजों के साथ सन्धि कर ली। 28 नवंबर, 1815.ई. को ब्रिटिश मेजर जनरल डेविड आक्टरलोनी के साथ अमर सिंह थापा ने ‘सुगौली की संधि’ पर हस्ताक्षर किये। इस संधि के अनुसार गोरखों को अपने निजी सम्पत्ति के साथ वापस सुरक्षित नेपाल जाने का रास्ता प्रदान किया गया।
6. ब्रिटिश और पहाड़ी राज्य-
1815 ई. के गोरखा-अंग्रेज युद्ध के बाद अंग्रेजों ने सभी स्वतंत्र पहाड़ी प्रमुखों के सहयोग हासिल करने के उद्देश्य उन्हें प्रस्ताव दिया कि नेपालियों द्वारा किसी भी बाद की घटनाओं की स्थिति में ब्रिटिशों के साथ उनके भाग लेने की स्थिति पर उन्हें भविष्य में स्वतंत्रता क आश्वासन दिया। पर अंग्रेजों ने पहाड़ी रियासतों से किये वादों का पूर्ण रूप से पालन नहीं किया। राजाओं को उनकी गद्दियों तो वापस दे दी लेकिन महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अपना अधिकार बनाए रखा। अंग्रेजों ने उन रियासतों पर भी कब्जा कर लिया। जिनके राजवंश समाप्त हो गये या जिनमें उत्तराधिकारी के लिए अगड़ा था। पहाड़ी शासकों को युद्ध खर्च के तौर पर भारी धनराशि अंग्रेजों को देनी पड़ती थी।
अंग्रेजों ने ‘पलासी’ में 20 शिमला पहाड़ी राज्यों की बैठक बुलाई ताकि गोरखों से प्राप्त क्षेत्रों का बंटवारा किया जा सके। बिलासपुर, कोटखाई, भागल और बुशहर को 1815 से 1819 तक सनद प्रदान की गई। कुम्हारसेन, बलसन, घरोच, कुठार, मांगल, धामी को स्वतंत्र सनद प्रदान की गई। खनेटी और देलथ बुशहर राज्य को दी गई जबकि कोटी, पुण्ड, ठियोग, मधान और रतेश क्योंथल रियासत को दी गई। सिखों के खतरे के कारण बहुत से राज्यों ने अंग्रेजों की शरण ली। नूरपुर के राजा बीर सिंह ने शिमला और सबाथू छावनी (अंग्रेजों की) में शरण ली। बलबीर सेन मण्डी के राजा ने रणजीत सिंह के विरुद्ध मदद के लिए सबाथू के पोलिटिकल एंजेट कर्नल टप्प को पत्र लिखा। बहुत से पहाड़ी राज्यों ने अंग्रेजों की सिखों के विरुद्ध मदद भी की। गुलेर के शमशेर सिंह, नूरपुर के बीर सिंह, कुटलहर के नारायण पाल ने सिखों को अपने इलाकों से खदेड़ा।
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद तथा 9 मार्च 1846 की लाहौर सन्धि के बाद सतलुज और ब्यास के क्षेत्रों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। 1846 ई. तक अंग्रेजों ने काँगडा, नरपर, गुलेर, जस्थान, दतारपुर, मण्डी, सुकेत, कल्लू और लाहौल-स्पीति को पूर्णतः अपने कब्जे में ले लिया।