1. बुशहर में दूम्ह आंदोलन (1859)—
सन् 1859 में बुशहर रियासत के किसानों ने नकदी भूमि लगान के खिलाफ आन्दोलन किया। इसका प्रमुख केन्द्र रोहडू क्षेत्र था। इसके कई कारण थे, परन्तु मुख्यत: यह सन् 1854 में सम्पन्न हई जमीन की पैमाइश के विरुद्ध था। नूरपुर निवासी तहसीलदार श्यामलाल ने उक्त समय जमीन का बन्दोबस्त किया और नकदी लगान निश्चित किया। लोगों के पास नकद सिक्कों की कमी रहती थी। अतः वे नकद भूमि लगान देने में असमर्थ थे।
किसानों ने इस अनुचित आर्थिक कानून के विरोध में अहिंसात्मक असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया। इस प्रकार के पारम्परिक आन्दोलन को पहाड़ी समाज में ‘दूम्ह-आन्दोलन’ कहते थे। यह ‘दूम्ह’ सामूहिक असहयोग आन्दोलन था। परम्परा के अनुसार आन्दोलनकारी किसान अपने गांव छोड़ कर जंगल में चले गए तथा अपने साथ अपने परिवार और पशुधन को ले जाकर जंगल में कष्ट का जीवन व्यतीत करने लगे। उन्होंने राजा की आज्ञा नहीं मानी और लगान देना बन्द कर दिया। कई गांव खाली हो गए। खड़ी फसलें नष्ट हो गईं और खेती-बाड़ी का काम रूक गया व खेत बंजर हो गए। इस आन्दोलन से बुशहर रियासत में अशान्ति फैल गई और सरकार विचलित हो गई। राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि लगान था। खड़ी फसलें नष्ट हो जाने और खेती से राज्य को भारी हानि होने लगी तथा साथ ही रियासत में विद्रोह भड़कने की भी आशंका उत्पन्न हो गई। राज्य और किसानों को अत्यधिक क्षति से बचाने के उद्देश्य से आन्दोलनकारी किसानों से बातचीत करना जरूरी हो गया। शिमला पहाड़ी राज्यों के सुपरिनटेन्डैंट जी. सी. बार्नस ने राजा शमशेर सिंह के साथ विचार विमर्श किया और किसानों की सारी मांगें मान ली गई।
दूम्ह आन्दोलन—
दूम्ह आन्दोलन में जब कभी राजा कोई ऐसा काम करता या भूमि कर लगाता था, जिसको लोग अनुचित और अन्याय पूर्ण समझते थे तो उसका विरोध प्रदर्शित करने के लिये वे गांव को छोड़कर पास के जंगल में चले जाते थे। वे अपने परिवार और पशुओं को भी साथ ले जाते थे। फलस्वरूप खेती-बाड़ी का काम ठप्प पड़ जाता था। दूम्ह आन्दोलनकारियों को तो इससे कष्ट होता ही था, पर राज्य को भी इससे भारी क्षति होती थी। जब खेती ही नहीं होती थी तो राज्य की आय भी प्रभावित होती थी। ऐसे आन्दोलन से सत्ता विचलित हो जाती थी और आन्दोलनकारियों की मांग पूरी करने का अविलम्ब प्रयास करती थी। दूम्ह आन्दोलन प्रायः व्यवस्थित और शातिपूर्वक होता था। सुलह -समझौता होने पर लोग अपने घरों को वापिस आते और पुनः अपने व्यवसाय खेती-बाड़ी और दूसरे कार्यों को सम्भालते थे।
2. सुकेत रियासत में जन आन्दोलन—
1862 ई में सुकेत रियासत में भ्रष्टाचार के खिलाफ विद्रोह हुआ। रियासत के वज़ीर नरोत्तम के दमनकारी नीति से लोग परेशान थे। राजा उग्रसेन ने नरोत्तम वज़ीर को हटाकर डुंगल को वज़ीर बनाया पर उसने भी दमनकारी नीति अपनाई और डांड नामक कर लगाया। गढ़-चवासी के लोगों ने उसे बन्दी बनाया। राजा उग्रसेन ने उचित कार्यवाही करने का आश्वासन देकर उसे रिहा करवाया। इस विद्रोह को सुकेत में दूम्ह कहते हैं।
3. नालागढ़ में जन आन्दोलन—-
1877 ई. में राजा इशरी सिंह के समय लोगों ने वज़ीर गुलाम कादिर खान के खिलाफ भारी जन आन्दोलन किया। वज़ीर गुलाम कादिर खान ने नए कर लगाए और भूमि लगान बढ़ा दिया। आन्दोलित लोगों ने रियासत के अधिकारियों के काम में बाधा डालना शुरू कर दिया। ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप से वज़ीर गुलाम कादिर खान को रियासत से निष्कासित कर दिया।
4. सुकेत रियासत में आन्दोलन—-
1878 ई. में सुकेत रियासत के लोगों ने राजा रूद्रसेन और वज़ीर ढुंगल के लगान बढ़ाने और शोषण के खिलाफ विद्रोह किया। 1879 ई. में अंग्रेजी सरकार ने राजा रूद्रसेन को विस्थापित करके उसके पुत्र आदि मर्दनसेन को राजा बनाया।
5. 1878 सिरमौर भूमि आन्दोलन–
राजा शमशेर प्रकाश ने 1878 ई. में भूमि बन्दोबस्त करवाया। लोगों ने लगान बढ़ाने के डर से इसका विरोध किया।
6. बिलासपुर का झुग्गा आंदोलन-
1883 से 1888 ई. में बिलासपुर में राजा अमरचंद के विरोध में झुग्गा आंदोलन हुआ। राजा के अत्याचार विरोध करने के लिए गेहड़वीं के ब्राह्मण झुग्गियों बनाकर रहने लगे और झुग्गों पर इष्ट देवता के झण्डे लगाकर कष्टों को सहते रहे। राजा अमर चन्द ने रियासत के तहसीलदार निरंजन सिंह के नेतृत्व में पुलिस गेहड़वीं भेज कर झुग्गों में बैठे सत्याग्रहियों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।
राजा के गिरफ्तार करने से पहले ही ब्राह्मण झुग्गों में आग लगाकर जल मरे। जनता भड़क गई और इसी आवेश में प्रजा के नेता गुलाबा राम नड्डा ने तहसीलदार निरंजन सिंह को खोली मार दी। गुलाबा राम नड्डा को गिरफ्तार कर सरीऊन किले में बन्दी बना लिया। अंत में राजा को बेगार प्रथा को खत्म कर प्रशासनिक सुधार करने पड़े।
7. चम्बा में किसान आन्दोलन—
1895 ई. में चम्बा रियासत में किसान आन्दोलन हुआ। राजा शाम सिंह और वज़ीर गोविन्द राम के समय किसानों पर भूमि लगान का बोझ था। बेगार प्रथा के अन्तर्गत प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति को छह महीने मुफ्त में काम करना पड़ता था। बलाणा गांव इस आन्दोलन का केन्द्र था। गांव वालों ने भूमि लगान देने से इन्कार कर दिया। लाहौर के ब्रिटिश कमीशनर ने इस आन्दोलन की जांच पड़ताल के लिए आयोग स्थापित किया। पर इस आन्दोलन को धोखे से दबा दिया गया।
1897 ई. में बाघल रियासत में राजा ध्यान सिंह के समय अत्याधिक भूमि लगान के विरोध में लोगों ने प्रदर्शन किया। 1897 ई में क्योंथल में भूमि आन्दोलन हुआ। 1898 ई में ठियोग और बेजा ठकुराईयों में भी विद्रोह हुआ। 1905 ई में बाघल के राजा विक्रम सिंह के प्रबंधक मियां मान सिंह के खिलाफ विद्रोह कर दिया। 1906 ई में वज़ीर रणबहादुर सिंह के प्रशासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए डोडरा क्वार में विद्रोह किया।
कुनिहार में किसान आन्दोलन—
1920 ई में कुनिहार रियासत में किसान आन्दोलन हुआ। 1921 ई में कुनिहार के बाबू कांशीराम और कोटगढ़ के सत्यानन्द स्टोक्स ने पहाड़ी रियासतों में बेगार के विरुद्ध आवाज उठाई।
सुकेत आन्दोलन—-
1924 ई में सुकेत के राजा लक्ष्मण सेन के समय में जनता से बहुत अधिक लगान लिया जाता था। बेगार प्रथा बहुत ज्यादा थी। इसके विरुद्ध विरोध बनैड़ के एक मियां रत्न सिंह ने किया।
1926 ई में ठियोग ठकुराई में राणा पदम् चन्द के प्रशासन के विरुद्ध लोगों ने आन्दोलन किया। इसका नेता उसी का भाई मियां खड़क सिंह था।
1929 ई में सिरमौर में भूमि बन्दोबस्त के खिलाफ आन्दोलन किया।
बिलासपुर में आन्दोलन—
1930 ई में बिलासपुर में भूमि बन्दोबस्त के समय एक बड़ा विद्रोह हुआ। सबसे पहले परगना बहादुरपुर के लोगों ने आन्दोलन किया। इस समय बिलासपुर का राजा आनन्द चन्द अवयस्क था। लोगों की आर्थिक स्थिति और राज्य के लगाये भारी राजस्व से लोगों में असन्तोष पैदा हो गया था। इससे निपटने के लिए लाहौर से रेजीडेन्ट जेम्स फिटस पैट्रिक ने एडवर्ड वेकफील्ड को कुछ सैनिकों के साथ बिलासपुर भेजा। नम्होल गांव में एकत्रित लोगों को पकड़कर बिलासपुर लाई। पुलिस के द्वारा बगावत में डण्डा चलाने के कारण इस आन्दोलन का नाम डाण्डरा आन्दोलन पड़ा।