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आधुनिक हिमाचल का इतिहास (सिख और गोरखा)

सिख-

गुरू नानक देव सिख धर्म के संस्थापक और पहले गुरू थे। गुरू नानक देव जी अपनी तीसरी उदासी (यात्रा) में 1514 AD में हिमाचल प्रदेश आए थे। गुरूनानक देव जी ने कांगड़ा, ज्वालामुखी, कुल्लू, सिरमौर और लाहौल-स्पीति की यात्रा की। पाँचवें सिख गुरु अर्जुन देव जी ने पहाडी राज्यों में भाई कलियाना को हरमिंदर साहिब (स्वर्ण मंदिर) के निर्माण के लिए चंदा एकत्र करने के लिए भेजा। छठे गुरु हरगोविंद जी ने पहाड़ी  राज्यों  की यात्रा की और बिलासपुर  (कहलूर) के राजा की तोहफे में दी हुई भूमि पर किरतपुर का निर्माण कियानवें सिख गुरु तेग बहादुरजी ने कहलर (बिलासपुर) से जमीन लेकर ‘मखोवाल’ गाँव की स्थापना की जो बाद में आनंदपुर साहिब कहलाया
गुरु गोविंद सिंह और कहलूर के राजा भीमचंद के बीच प्रसादी नाम के सफेद हाथी को लेकर मनमुटाव हुआ जिसे आसाम की रानी रतनराय ने दिया था। गुरु गोविंद सिंह 5 वर्षों तक पौंटा साहिब रहे और दशम ग्रंथ की रचना की। गुरु गोविंद सिंह और कहलूर के राजा भीमचंद, उसके समधी गढ़वाल के फतेहशाह और हण्डर के राजा हरिचंद के बीच 1686 ई. में पांवटा साहिब के पास ‘भगानी साहिब’ का युद्ध लड़ा गया, जिसमें गुरू गोविंद सिंह विजयी रहे। हण्डूर (नालागढ़) के राजा हरिचन्द्र की मृत्यु गुरु गोविंद सिंह के तीर से हो गई। युद्ध के बाद गुरु गोविंद सिंह ने हरिचंद के उत्तराधिकारी को भूमि लौटा दी और भीमचंद (कहलूर) के साथ भी उनके संबंध मधुर हो गए। राजा भीमचंद ने मुगलों के विरुद्ध गुरु गोविंद सिंह से सहायता माँगी। गुरु गोविंद सिंह ने नादौन में मुगलों को हरायागुरु गोविंद सिंह ने मण्डी के राजा सिद्धसेन के समय मण्डी और कुल्लू की यात्रा की। गुरु गोविंद सिंह ने 13 अप्रैल, 1699 ई. को बैसाखी के दिन आनंदपुर साहिब (मखोवाल) में 80 हजार सैनिकों के साथ खालसा पंथ की स्थापना की। गुरु गोविंद सिंह जी की 1708 ई. में नांदेड़ (महाराष्ट्र) में मृत्यु हो गई।
बंदा बहादुर ने सिक्खों के खिलाफ विद्रोह करने वाले पहाड़ी राजाओं के खिलाफ आक्रमण कर उन्हें पराजित किया। बंदा बहादुर की मृत्यु के बाद सिख 12 मिसलों में बँट गए। मुगल वंश के पतन के बाद अहमद शाह अब्दाली ने घमण्डचंद को जालंधर दोआब का निजाम बनाया। राजा घमण्डचंद ने जस्सा सिंह रामगढ़िया को हराया। काँगड़ा की पहाड़ियों पर आक्रमण करने वाला पहला सिख जस्सा सिंह रामगढ़िया था। घमण्डचंद की मृत्यु के उपरान्त संसारचंद द्वितीय ने 1782 ई. में जय सिंह कन्हैया की सहायता से मुगलों से काँगड़ा किला छीन लिया। जयसिंह कन्हैया ने 1783 में काँगड़ा किला अपने कब्जे में लेकर संसारचंद को देने से मना कर दिया। जयसिंह कन्हैया ने 1785 ई. में संसारचंद को काँगड़ा किला लौटा दिया।

संसारचंद-
संसारचंद ।। काँगड़ा का सबसे शक्तिशाली राजा था। वह 1775 ई. में काँगडा का राजा बना। उसने 1786 ई. में ‘नेरटी शाहपुर’ युद्ध में चम्बा के राजा को हराया। वर्ष 1786 में 1805 ई. तक का काल संसारचंद के लिए स्वर्णिम काल था। उसने 1787 ई. में काँगड़ा किले पर कब्जा किया। संसारचंद ने 1794 ई. में कहलूर (बिलासपुर) पर आक्रमण किया। यह आक्रमण उसके पतन की शुरुआत बना। कहलूर के राजा महान चन्द ने पहाड़ी शासकों के संघ के माध्यम से गोरखा अमर सिंह थापा को राजा संसारचंद को हराने के लिए आमंत्रित किया

गोरखा-

18वीं शताब्दी के दुसरे भाग में गोरखाओं ने गोरखा राज्य स्थापित करने के उद्देश्य से बहुत से रियासतों पर कब्जा किया था। जब गोरखा गढवाल को जीत रहे थे उसी समय राजा करम प्रकाश सिरमौर की गद्दी पर बैठा। राजा करम प्रकाश का भाई कुंवर रत्तन सिंह ने अजीत सिंह और किशन सिंह के साथ मिलकर राजा के खिलाफ विद्रोह कर दिया। राजा करम प्रकाश ने अपनी गद्दी को वापिस पाने के उद्देश्य से गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा को सहायता के लिए बुलाया।

गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने 1804 ई. तक कुमाएँ, गढ़वाल, सिरमौर तथा शिमला की 30 हिल्स रियासतों पर कब्जा कर लिया था। 1806 ई. को अमर सिंह थापा ने महलमोरियों (हमीरपुर) में संसारचंद को पराजित किया। संसारचंद ने काँगड़ा किले में शरण ली, वह वहाँ 4 वर्षों तक रहा। अमर सिंह थापा ने 4 वर्षों तक काँगड़ा किले पर घेरा डाल रखा था, संसारचंद ने 1809 में ज्वालामुखी जाकर महाराजा रणजीत सिंह से मदद माँगी। दोनों के बीच 1809 ई. में ज्वालामुखी की संधि हुई

महाराजा रणजीत सिंह-
1809 ई. में महाराजा रणजीत सिंह ने गोरखों पर आक्रमण कर अमर सिंह थापा को हराया और सतलुज के पूर्व तक धकेल दिया। संसारचंद ने महाराजा रणजीत सिंह को 66 गाँव और काँगडा किला सहायता के बदले में दिया। देसा सिंह मजीठिया को काँगड़ा किला और काँगड़ा का नाजिम 1809 ई. में महाराजा रणजीत सिंह ने बनाया। महाराजा रणजीत सिंह ने 1813 में हरिपुर (गुलेर) बाद में नरपुर और जसवाँ को अपने अधिकार में ले लिया। 1818 में दत्तारपुर, 1825 में कुटलहर को हराया। वर्ष 1823 में संसारचंद की मृत्यु के बाद अनिरुद्ध चंद को एक लाख रुपये के नजराना के एवज में गद्दी पर बैठने दिया गया। अनिरुद्ध चंद ने रणजीत सिंह को अपनी बेटी का विवाह जम्मू के राजा ध्यान सिंह के पुत्र से करने से मना कर दिया और अंग्रेजों से शरण माँगी। 1839 ई. में बैंचुरा के नेतृत्व में एक सेना मण्डी तो दूसरी कुल्लू भेजी गयी। महाराजा रणजीत सिंह की 1839 ई. में मृत्यु के पश्चात् सिखों का पतन शुरू हो गया।

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